॥ कबीर के दोह ॥
दुख म सुमिरन सब करे, सुख मे करे न कोय । जो सुख मे सुमिरन करे, दुख कहे को होय ॥ 1 ॥
ितनका कबहुँ ना निदये, जो पाँव तले होय । कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥
माला फेरत जुग भया, िफरा न मन का फेर । कर का मन का डार द, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
गु गोिवद दोन खड़े, काके लागूं पाँय । बिलहारी गु आपनो, गोवद िदयो बताय ॥ 4 ॥
बिलहारी गु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । मानुष से देवत िकया करत न लागी बार ॥ 5 ॥
कबीरा माला मनिह की, और संसारी भीख । माला फेरे हिर िमले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥
सुख मे सुिमरन ना िकया, दु:ख म िकया याद । कह कबीर ता दास की, कौन सुने फिरयाद ॥ 7 ॥
साईं इतना दीिजये, जा मे कुटुम समाय । म भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे िफरे पछताओगे, ाण जाह जब छट ॥ ू 9 ॥
जाित न पूछो साधु की, पूिछ लीिजए ान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो यान ॥ 10 ॥
जहाँ दया तहाँ धम है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । जहाँ ोध तहाँ पाप है, जहाँ मा तहाँ आप ॥ 11 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
॥ कबीर के दोह ॥
माली सचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥
कबीरा ते नर अध है, गु को कहते और । हिर ठे गु ठौर है, गु ठै नह ठौर ॥ 13 ॥
पाँच पहर धधे गया, तीन पहर गया सोय । एक पहर हिर नाम िबन, मुि कैसे होय ॥ 14 ॥
कबीरा सोया या करे, उिठ न भजे भगवान । जम जब घर ले जायगे, पड़ी रहेगी यान ॥ 15 ॥
शीलवत सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । तीन लोक की सपदा, रही शील म आन ॥ 16 ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । आशा तृणा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
माटी कहे कुहार से, तु या रदे मोय । एक िदन ऐसा आएगा, म रदूंगी तोय ॥ 18 ॥
रात गंवाई सोय के , िदवस गंवाया खाय । हीना जम अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नद िनशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । और रसायन छांिड़ के , नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे, तािह बोय तू फूल । तोकू फूल के फूल है, बाकू है िशल ॥ ू 21 ॥
दुलभ मानुष जम है, देह न बारबार । तवर य पी झड़े, बहुिर न लागे डार ॥ 22 ॥ आय ह सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । एक सहासन चिढ़ चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल म लय होएगी, बहुिर करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मित माँगो कोई भीख । माँगन से तो मरना भला, यह सतगु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । कह कबीर यह य िमटे, चार धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, िबरला जाने कोय । भगता के पीछे लगे, समुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था िकस काम को, तु सोया चादर तान । सुरत सभाल ए गािफल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
या भरोसा देह का, िबनस जात िछन मांह । साँस-सांस सुिमरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही स ऊपजे, कलह क और मच । हािर चले सो साधु है, लािग चले सो नच ॥ 30 ॥
दुबल को न सताइए, जािक मोटी हाय । िबना जीव की हाय से, लोहा भम हो जाय ॥ 31 ॥
दान िदए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । अपनी आँख देख लो, य या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस ारे का पजरा, तामे पंछी का कौन । रहे को अचरज है, गए अचभा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
हीरा वहाँ न खोिलये, जहाँ कुंजड़ की हाट । बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुिटल वचन सबसे बुरा, जािर कर तन हार । साधु वचन जल प, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग म बैरी कोई नह, जो मन शीतल होय । यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
म रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । मोको रोबे सोचना, जो शद बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । यह तीन सोते भले, सािकत सह और साँप ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । नाना नाच िदखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर म तीर रहा है टूट । चुबक िबना िनकले नह कोिट पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, या िदावे मोय । दय नाम न जपेगा, यह जपनी या होय ॥ 43 ॥
पितवृता मैली, काली कुचल कुप । पितवृता के प पर, वारो कोिट सप ॥ 44 ॥ बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । एक कबीरा ना मुआ, जेिह के राम अधार ॥ 45 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । हद बेहद दोन तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गु की पूजा ना आस । रहे कबीर पाखड सब, झूठे सदा िनराश ॥ 47 ॥
जाके िजया बधन नह, दय म नह साँच । वाके संग न लािगये, खाले विटया काँच ॥ 48 ॥
तीरथ गये ते एक फल, सत िमले फल चार । सगु िमले अनेक फल, कह कबीर िवचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी िबन मीन । ाण तजे िबन िबछड़े, सत कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नह, पर के साथ िबकाय । म खचत हूँ आपके , तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती िवया, कु थार भराय । जो जन माग न जाने, सो ितस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह िदया, अब कुछ कहा न जाय । एक रहा दूजा गया, दिरया लहर समाय ॥ 53 ॥
वतु है ाहक नह, वतु सागर अनमोल । िबना करम का मानव, िफर डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शद न माने कोय । चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, ोधी, लालची, इनसे भि न होय । भि करे कोइ सूरमा, जाित वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
जागन म सोवन करे, साधन म लौ लाय । सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाह जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चिहए ,जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गिह रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लगी ल छटे नाहू , जीभ चच जिर जाय । मीठा कहा अंगार म, जािह चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भि गद चौगान की, भावे कोई ले जाय । कह कबीर कुछ भेद नाह, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, समुख दे दीदार । बाल सनेही सांइयाँ, आवा अत का यार ॥ 61 ॥
अतयमी एक तुम, आमा के आधार । जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
म अपराधी जम का, नख-िसख भरा िवकार । तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सहार ॥ 63 ॥
ेम न बड़ी ऊपजै, ेम न हाट िबकाय । राजा-जा जोिह च, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
ेम याला जो िपये, शीश दिणा देय । लोभी शीश न दे सके , नाम ेम का लेय ॥ 65 ॥
सुिमरन म मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । कह कबीर िबसरे नह, ान तजे तेिह संग ॥ 66 ॥
सुमिरत सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । बाहर का पट बद कर, अदर का पट खोल ॥ 67 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
छीर प सतनाम है, नीर प यवहार । हंस प कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
य ितल मांही तेल है, य चकमक म आग । तेरा सांई तुझम, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ँिढ़याू , सो तो घट ही मांिह । परदा िदया भरम का, ताते सूझे नाह ॥ 70 ॥
जबही नाम िहरदे घरा, भया पाप का नाश । मानो चगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नह शीतल है चमा, हम नह शीतल होय । कबीरा शीतल सत जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी िकए वाद । नाक तलक पूरन भरे, तो का किहए साद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भि न होय । नाता तोड़े हिर भजे, भगत कहाव सोय ॥ 74 ॥
जल य यारा माहरी, लोभी यारा दाम । माता यारा बारका, भगित यारा नाम ॥ 75 ॥
िदल का मरहम ना िमला, जो िमला सो गज । कह कबीर आसमान फटा, यकर सीवे दज ॥ 76 ॥
बानी से पचािनये, साम चोर की घात । अदर की करनी से सब, िनकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लिग भगित सकाम है, तब लग िनफल सेव । कह कबीर वह य िमले, िनकामी तज देव ॥ 78 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
फूटी आँख िववेक की, लखे ना सत असत । जाके संग दस-बीस ह, ताको नाम महत ॥ 79 ॥
दाया भाव दय नह, ान थके बेहद । ते नर नरक ही जायगे, सुिन-सुिन साखी शद ॥ 80 ॥
दाया कौन पर कीिजये, का पर िनदय होय । सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
जब म था तब गु नह, अब गु ह म नाय । ेम गली अित साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥
िछन ही चढ़े िछन ही उतरे, सो तो ेम न होय । अघट ेम पजरे बसे, ेम कहावे सोय ॥ 83 ॥
जहाँ काम तहाँ नाम नह, जहाँ नाम नह वहाँ काम । दोन कबहूँ नह िमले, रिव रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । टूट एक के कारने, वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥
ऊँचे पानी न िटके , नीचे ही ठहराय । नीचा हो सो भिरए िपए, ऊँचा यासा जाय ॥ 86 ॥
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । जौसे दूज का चमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥
संत ही म सत बांटई, रोटी म ते टूक । कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ माग चलते जो िगरा, ताक नािह दोष । यह किबरा बैठा रहे, तो िसर करड़े दोष ॥ 89 ॥
॥ कबीर के दोह ॥
जब ही नाम दय धरयो, भयो पाप का नाश । मानो िचनगी अि की, पिर पुरानी घास ॥ 90 ॥
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । काया वैध ईश बस, मम न काहू पाय ॥ 91 ॥
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । शद िबना साधु नही, य िबना नह शाह ॥ 92 ॥
बाहर या िदखलाए, अनतर जिपए राम । कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम । कहे कबीर सेवक नह, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥
तेरा साँई तुझम, य पहुपन म बास । कतूरी का िहरन य, िफर-िफर ढ़ँढ़त घास ॥ ू 95 ॥
कथा-कीतन कुल िवशे, भवसागर की नाव । कहत कबीरा या जगत म नािह और उपाव ॥ 96 ॥
किबरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । कै सेवा कर साधु की, कै गोवद गुन गा ॥ 97 ॥
तन बोहत मन काग है, ल योजन उड़ जाय । कबहु के धम अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥
जहँ गाहक ता हूँ नह, जहाँ म गाहक नाँय । मूरख यह भरमत िफरे, पकड़ शद की छाँय ॥ 99 ॥
कहता तो बहुत िमला, गहता िमला न कोय । सो कहता वह जान दे, जो नह गहता होय ॥ 100 ॥
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
॥ कबीर के दोह ॥
तब लग जीव जग कमवश, य लग ान न पूर ॥ 101 ॥
आस पराई रात, खाया घर का खेत । औरन को बोधता, मुख म पड़ रेत ॥ 102 ॥
सोना, सन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार । दुजन कुभ कुहार के , ऐके धका दरार ॥ 103 ॥
सब धरती कारज कँ, लेखनी सब बनराय । सात समु की मिस कँ गुगुन िलखा न जाय ॥ 104 ॥
बिलहारी वा दूध की, जामे िनकसे घीव । घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥
आग जो लागी समु म, धुआँ न कट होय । सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥
साधु गाँिठ न बाँधई, उदर समाता लेय । आगे-पीछे हिर खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥
घट का परदा खोलकर, समुख दे दीदार । बाल सने ही सांइया, आवा अत का यार ॥ 108 ॥
किबरा खािलक जािगया, और ना जागे कोय । जाके िवषय िवष भरा, दास बदगी होय ॥ 109 ॥
ऊँचे कुल म जािमया, करनी ऊँच न होय । सौरन कलश सुरा, भरी, साधु िनदा सोय ॥ 110 ॥
सुमरण की सुय करो य गागर पिनहार । होले-होले सुरत म, कह कबीर िवचार ॥ 111 ॥
सब आए इस एक म, डाल-पात फल-फूल ।
॥ कबीर के दोह ॥
किबरा पीछा या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥
जो जन भीगे रामरस, िवगत कबहूँ ना ख । अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥
सह अके ला बन रहे, पलक-पलक कर दौर । जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो । बाप-पूत उरभाय के , संग ना काहो के हो ॥ 115 ॥
जहर की जम म है रोपा, अभी खचे सौ बार । किबरा खलक न तजे, जामे कौन िवचार ॥ 116 ॥
जग मे बैरी कोई नह, जो मन शीतल होय । यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥
जो जाने जीव न आपना, करह जीव का सार । जीवा ऐसा पाहौना, िमले ना दूजी बार ॥ 118 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चदन की डार । बाट लगाए ना लगे िफर या लेत हमार ॥ 119 ॥
लोग भरोसे कौन के , बैठे रह उरगाय । जीय रही लूटत जम िफरे, मैँढ़ा लटे कसाय ॥ ु 120 ॥
एक कहूँ तो है नह, दूजा कहूँ तो गार । है जैसा तैसा हो रहे, रह कबीर िवचार ॥ 121 ॥
जो तु चाहे मु को, छोड़े दे सब आस । मु ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
॥ कबीर के दोह ॥
चाहे बोले के स रख, चाहे घट भुडाय ॥ 123 ॥
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान । हिर की बात दुरतरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह । आशा जीवन मरण की, मन म राख नोह ॥ 125 ॥
लीक पुरानी को तज, कायर कुिटल कपूत । लीख पुरानी पर रह, शाितर सह सपूत ॥ 126 ॥
सत पुष की आरसी, सत की ही देह । लखा जो चहे अलख को, उह म लख लेह ॥ 127 ॥
भूखा-भूखा या करे, या सुनावे लोग । भांडा घड़ िनज मुख िदया, सोई पूण जोग ॥ 128 ॥
गभ योगेर गु िबना, लागा हर का सेव । कहे कबीर बैकुठ से, फेर िदया शुदेव ॥ 129 ॥
ेमभाव एक चािहए, भेष अनेक बनाय । चाहे घर म वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥
कांचे भाड से रहे, य कुहार का देह । भीतर से रा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥
साँई ते सब होते है, बदे से कुछ नाह । राई से पवत करे, पवत राई माह ॥ 132 ॥
के तन िदन ऐसे गए, अन चे का नेह । अवसर बोवे उपजे नह, जो नह बरसे मेह ॥ 133 ॥
एक ते अनत अत एक हो जाय ।
॥ कबीर के दोह ॥
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥
हिर संगत शीतल भया, िमटी मोह की ताप । िनिशवासर सुख िनिध, लहा अ गटा आप ॥ 136 ॥
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । जोगी फेरी य िफरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥
आग जो लगी समु म, धुआँ ना कट होय । सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥
अटकी भाल शरीर म, तीर रहा है टूट । चुबक िबना िनकले नह, कोिट पठन को फूट ॥ 139 ॥
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । हिर की बात दुरतरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
आस पराई राखता, खाया घर का खेत । औन को पथ बोधता, मुख म डारे रेत ॥ 141 ॥
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । कह कबीर नह उलिटये, वही एक की एक ॥ 142 ॥
आहार करे मनभावता, इंी की वाद । नाक तलक पूरन भरे, तो किहए कौन साद ॥ 143 ॥
आए ह सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । एक सहासन चिढ़ चले, एक बाँिध जंजीर ॥ 144 ॥
आया था िकस काम को, तू सोया चादर तान ।
॥ कबीर के दोह ॥
सूरत सँभाल ए कािफला, अपना आप पचान ॥ 145 ॥
उवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । एक हिर के नाम िबन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥
उतते कोई न आवई, पासू पूछँ धाय ।ू इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
एक कहूँ तो है नह, दूजा कहूँ तो गार । है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर िवचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोिलए, मन का आपा खोए । औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥