यहां स्वामी विरानेश्वर जी महाराज बता रहे हैं कि विश्व में ध्यान की जो भी पद्धतियाँ उपलब्ध हैं, उनमें से शाम्भवी महामुद्रा (Shambhavi Mahamudra) में ऐसा क्या है आज जो उसे सबसे अधिक महत्वपूर्ण व अद्वितीय बनाता है ?
Shambhavi Mahamudra शाम्भवी महामुद्रा
जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है।
भृकुटि के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे, अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक की आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये।
ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इसको ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है। इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है।
इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग दूसरा नहीं है।शाम्भवी मुद्रा को भगवान शिव की मुद्रा भी कहा जाता है| इस मुद्रा को करने के बाद साधक घण्टो तक एक आसन पर चेतन अवस्था मे रहकर साधना कर सकते है।
दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य स्थिर करके एकाग्र मन से परमात्मा का चिंतन करें तो ध्यान की परिवक्वता होने पर ज्योति–दर्शन होता है| यही शाम्भवी मुद्रा है| आत्म साक्षात्कार के आकांक्षी पुरुषों के लिए यह अत्यंत कल्याणकारी मुद्रा है|
ध्यान से महामुद्रा तक
ध्यान का प्रयोग भारत में प्राचीन काल से होता आया है, हिन्दू धर्म में ध्यान की पद्धति महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित योगसूत्र में वर्णित अष्टांगयोग का एक अंग है । ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि है। ध्यान का अर्थ किसी भी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है। मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, ईश्वर का अनुसंधान, मन को निर्विचार करना, मन पर काबू पाना जैसे कई उद्देश्यो के साथ ध्यान किया जाता है।
ध्यान एकाग्रता की शक्ति है। जब यही शक्ति बाहरी जीवन में प्रयुक्त होती है तो टेलीस्कोप की तरह से देखने में समर्थ हो जाती है, लेकिन जब हमारे अंतरंग जीवन में प्रवेश करती है तो सारे के सारे सूक्ष्म जगत में विद्यमान रहस्यों को खोलकर रख देती है, जिसमें देवी देवता भी शामिल हैं। चक्रों के रूप में देवता हमारे भीतर विद्यमान हैं। एक से एक बढ़िया चीजें हमारे भीतर विद्यमान हैं जिनमें कुंडलिनी भी शामिल है।
चेतना की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अंतर्मुखी बनाना, अंतर्जगत् की विशेषताओं को देखना, आत्मा उच्च उद्देश्यों पर केन्द्रीकरण ही इन सबका एकमात्र आधार है। मानसिक बिखराव को एक केंद्र पर केंद्रित करने से एकाग्रताजन्य ऊर्जा उत्पन्न होती है उसे जिस भी दिशा में नियोजित किया जाएगा उसी में चमत्कार उत्पन्न करेगी।
आत्मिक प्रगति के लिए उसे लगाया जाए तो उस दिशा में भी उसका लाभ मिलेगा ही। वैज्ञानिक, शोधकर्ता जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति इस मानसिक केन्द्रीकरण के फलस्वरूप ही अपने-अपने कार्यों में विविध सफलताएँ प्राप्त करते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए योगीजन इसी शक्ति का उपयोग करके अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। ध्यानयोग को चेतनात्मक पुरुषार्थों में अत्यंत उच्चकोटि का समझा जा सकता है ।
हमारे भीतर एक ही चीज प्रवेश कर सकती है और वह है-ध्यान। अगर हम अपनी मनशक्ति को ध्यान द्वारा एकाग्र करना सीख लें, ध्यान को एक ताकत बना लें तो सब कुछ हस्तगत हो सकता है।ध्यान एक चमत्कार है। ध्यान की शक्ति अगर हृदय पर लगा दी जाए और हृदय से कहा जाए कि साहब, आपको बंद होना है तो उसका धड़कना बंद हो जाता है और आदमी समाधि में चला जाता है। लोग 6-6 महीने समाधि में रह सकते हैं। बस, करना इतना होता है कि ध्यान की स्थिति में मन को कहते हैं कि भागना मत और मरना भी मत। ये दो काम मत करना। समाधि में मन चला भी जाता है ।
उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव
हमारे भीतर दो ध्रुव हैं-एक उत्तरी ध्रुव और एक दक्षिणी ध्रुव। उत्तरी ध्रुव हमारा मस्तिष्क है, जो शक्तियों का पुंज है। इसमें अनेक लोक लोकांतर की चेतन शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। दक्षिणी ध्रुव हमारा मूलाधारचक्र है। एक हमारा सिर वाला सहस्रारचक्र उत्तरी ध्रुव है और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। पृथ्वी को जो आंतरिक ताकत मिलती है, वह उसके दोनों ध्रुवों से मिलती है। इसी तरह हमारे भीतर विद्यमान दोनों ध्रुव शक्तिशाली जेनरेटर की तरह लगे हुए हैं। उनकी शक्ति के बारे में क्या/कहा जाये , किंतु ये दोनों सोए हुए पड़े हैं। सोई हुई चीज को ठीक करने के लिए क्या बाहरी शक्ति काम कर सकती है? नहीं कर सकती। हमारे भीतर कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती ।
साकार ध्यान मुद्रा और निराकार ध्यान मुद्रा
ध्यान करने के लिए स्वच्छ जगह पर स्वच्छ आसन पे बैठकर साधक अपनी आँखे बंद करके अपने मन को दूसरे सभी संकल्प-विकल्पो से हटाकर शांत कर देता है। और ईश्वर, मूर्ति, आत्मा, निराकार परब्रह्म या किसी की भी धारणा करके उसमे अपने मन को स्थिर करके उसमें ही लीन हो जाता है।
जिसमें ईश्वर या किसीकी धारणा की जाती है उसे साकार ध्यान और किसीकी भी धारणा का आधार लिए बिना ही कुशल साधक अपने मनको स्थिर करके लीन होता है उसे योग की भाषा में निराकार ध्यान कहा जाता है। गीता के अध्याय-6 में श्रीकृष्ण द्वारा ध्यान की पद्धति का वर्णन किया गया है।
ध्यान मुद्रा के अभ्यास का नियम
ध्यान करने के लिए पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठा जा सकता है। शांत और चित्त को प्रसन्न करने वाला स्थल ध्यान के लिए अनुकूल है। रात्रि, प्रात:काल या संध्या का समय भी ध्यान के लिए अनुकूल है। ध्यान के साथ मन को एकाग्र करने के लिए प्राणायाम, नामस्मरण (जप), त्राटक का भी सहारा लिया जा सकता है।
ध्यान में ह्रदय पर ध्यान केन्द्रित करना, ललाट के बीच अग्र भाग में ध्यान केन्द्रित करना, स्वास-उच्छवास की क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करना, इष्टदेव की धारणा करके उसमे ध्यान केन्द्रित करना, मन को निर्विचार करना, आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करना जैसी कई पद्धतियाँ है। ध्यान के साथ प्रार्थना भी कर सकते है। साधक अपने गुरु के मार्गदर्शन और अपनी रुचि के अनुसार कोई भी पद्धति अपनाकर ध्यान कर सकता है।
ध्यान के अभ्यास के प्रारंभ में मन की अस्थिरता और एक ही स्थान पर एकांत में लंबे समय तक बैठने की अक्षमता जैसी परेशानीयों का सामना करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास के बाद मन को स्थिर किया जा सकता है और एक ही आसन में बैठने के अभ्यास से ये समस्या का समाधान हो जाता है। सदाचार, सद्विचार, यम, नियम का पालन और सात्विक भोजन से भी ध्यान में सरलता प्राप्त होती है।
ध्यान का अभ्यास आगे बढ़ने के साथ मन शांत हो जाता है जिसको योग की भाषा में चित्तशुद्धि कहा जाता है। ध्यान में साधक अपने शरीर, वातावरण को भी भूल जाता है और समय का भान भी नहीं रहता। उसके बाद समाधिदशा की प्राप्ति होती है। योगग्रंथो के अनुसार ध्यान से कुंडलिनी शक्ति को जागृत किया जा सकता है और साधक को कई प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है।
ध्यान मुद्रा की बैठक
ध्यान के लिए नर्म और मुलायम आसान होना चाहिए जिस पर बैठकर आराम और सूकुन का अनुभव हो। बहुत देर तक बैठे रहने के बाद भी थकान या अकड़न महसूस न हो। इसके लिए भूमि पर नर्म आसन बिछाकर दीवार के सहारे पीठ टिकाकर भी बैठ सकते हैं अथवा पीछे से सहारा देने वाली आराम कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं।
आसन में बैठने का तरीका ध्यान में काफी महत्व रखता रखता है। ध्यान की क्रिया में हमेशा सीधा तनकर बैठना चाहिए। दोनों पैर एक दूसरे पर क्रास की तरह होना चाहिए या आप सिद्धासन में भी बैठ सकते हैं।
समय ध्यान के लिए एक निश्चित समय बना लेना चाहिए इससे कुछ दिनों के अभ्यास से यह दैनिक क्रिया में शामिल हो जाता है फलत ध्यान लगाना आसान हो जाता है।
ध्यान मुद्रा की तैयारी
बेहतर स्थान : ध्यान की तैयारी से पूर्व आपको ध्यान करने के स्थान का चयन करना चाहिए। ऐसा स्थान जहां शांति हो और बाहर का शोरगुल सुनाई न देता हो। साथ ही वह खुला हुआ और हरा-भरा हो। आप ऐसा माहौल अपने एक रूम में भी बना सकते हो।
जरूरी यह है कि आप शोरगुल और दम घोंटू वातावरण से बचे और शांति तथा सकून देने वाले वातारवण में रहे जहां मन भटकता न हो। यदि यह सब नहीं हैं तो ध्यान किसी ऐसे बंद कमरे में भी कर सकते हैं जहां उमस और मच्छर नहीं हो बल्कि ठंडक हो और वातावरण साफ हो। आप मच्छरदानी और एग्जॉस्ट-फैन का इस्तेमाल भी कर सकते हैं।
सुगंधित वातावरण को ध्यान की तैयारी में शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सुगंध या इत्र का इस्तेमाल कर सकते हैं या थोड़े से गुड़ में घी तथा कपूर मिलाकर कंडे पर जला दें कुछ देर में ही वातावरण ध्यान लायक बन जाएगा।
ध्यान मुद्रा हेतु सावधानी
ध्यान में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस क्रिया में किसी प्रकार का तनाव नहीं हो और आपकी आंखें बंद, स्थिर और शांत हों तथा ध्यान भृकुटी पर रखें। खास बात की आप ध्यान में सोएं नहीं बल्कि साक्षी भाव में रहें।
ध्यान मुद्रा का नियम
ध्यान के तरीके बहुत कम लोग ही जानते हैं। निश्चित ही ध्यान को प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा के अनुसार ढाला गया है।
मूलत: ध्यान को चार भागों में बांटा जा सकता है-
1. देखना,
2. सुनना,
3. श्वास लेना,
4. भृकुटी ध्यान(आंखें बंदकर मौन होकर सोच पर ध्यान देना)
देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान, सुनने को श्रवण ध्यान, श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान और आंखें बंदकर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं। उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं।
दृष्टा ध्यान मुद्रा
उक्त तरीकों को में ही ढलकर योग और हिन्दू धर्म में ध्यान के हजारों प्रकार बताएं गए हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार हैं। भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे जो ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है।
श्रवण ध्यान मुद्रा
सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। सुनना बहुत कठिन है। सुने ..ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर।
प्राणायाम ध्यान मुद्रा
बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथा संभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहे। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है।
भृकुटि ध्यान मुद्रा
आंखें बंद करके दोनों भवों के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना; होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यान है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली।
ध्यान मुद्रा में आकार के आश्रय की आवश्यकता है!
ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है। साधना का प्रमुख अवलंबन ध्यान है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए परब्रह्म को प्रकाशपुञ्ज माना जाता है। प्रकाशपुञ्ज की ईश्वरप्रदत्त प्रतिमा सूर्य है। उसी की छोटी-बड़ी आकृतियाँ बनाकर निराकारवादी ध्यान करते हैं। दृश्यमान प्रकाश को ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। परब्रह्म परमात्मा की सविता के रूप में इसी आधार पर प्रतिष्ठापना की गई है। ।
प्रकाश रूप में ध्यान साधना के सभी प्रकट ”त्राटक” कहलाते हैं।
सिद्धांत यह है कि आरंभ में खुले नेत्रों से किसी प्रकाश प्रतीक को देखा जाए फिर आँखें बंद करके उस ज्योति का ध्यान किया जाए। उगते हुए सूर्य को दो -पाँच सेकेंड खुली आँखों से देखकर आकाश में उसी स्थान पर देखने का कल्पना चित्र बनाया जाता है। वह अधिक स्पष्ट अनुभूति के साथ दीखने लगे इसके लिए चिंतन क्षमता पर अधिक दबाव दिया जाता है।
सूर्य की ही तरह चंद्रमा पर, किसी तारक विशिष्ट पर भी यह धारणा की जाती है। प्रकाश को भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसकी किरणें अपने तक आने की, चेतना में प्रवेश कर जाने की, दिव्य बलिष्ठता प्रदान करने की धारणा की जाती है। मोटे-तौर से इसी को त्राटक साधना का आरंभिक अभ्यास कहा जा सकता है ।
अंतःत्राटक से प्रकाश ज्योति की धारणा सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत विद्यमान अतीव क्षमता संपन्न शक्ति केंद्रों पर की जाती है। षट्चक्रों का वर्णन साधना विज्ञान में विस्तारपूर्वक दिया गया है। उन्हें जाग्रत बनाने के लिए जिन उपायों को काम में लाया जाता है उनमें एक यह भी है कि उन केंद्रों पर प्रकाश ज्योति जलने का ध्यान किया जाए। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहद, विशुद्धि और आज्ञाचक्र-ये षट्चक्र हैं। उनके स्थान सुनिश्चित हैं। उन्हीं स्थानों पर प्रकाश को धारण करने से उनमें हलचल उत्पन्न होती है और मूर्च्छना जागृति में बदल जाती है।
दक्षिणमार्गी साधना में आज्ञाचक्र प्रथम है और जागरण की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलती है और वाममार्ग में मूलाधार से यह जागरण आरंभ होता है अर्थात नीचे से
सनातन हिन्दू धर्म में ध्यान मुद्रा के पारंपरिक प्रकार
अब हम ध्यान के पारंपरिक प्रकार की बात करते हैं। यह ध्यान तीन प्रकार का होता है-
स्थूल ध्यान मुद्रा
ज्योतिर्ध्यान मुद्रा
सूक्ष्म ध्यान मुद्रा
स्थूल ध्यान मुद्रा
स्थूल वस्तुओं के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते हैं। जैसे सिद्धासन में बैठकर आंख बंदकर किसी देवता, मूर्ति, प्रकृति या शरीर के भीतर स्थित हृदय चक्र पर ध्यान देना ही स्थूल ध्यान है। इस ध्यान में कल्पना का महत्व है।
ज्योतिर्ध्यान मुद्रा
जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाय उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं। मूलाधार और लिंगमूल के मध्य स्थान में कुंडलिनी सर्पाकार में स्थित है। इस स्थान पर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्ध्यान है।
सूक्ष्म ध्यान मुद्रा
जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।साधक सांभवी मुद्रा का अनुष्ठान करते हुए कुंडलिनी का ध्यान करे ।
पारम्परिक ध्यान मुद्रा में सिद्धि प्राप्त करने की विधि
स्थूल-ध्यान मुद्रा सिद्धि की प्रथम विधि :- साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे है। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं।
इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं।
साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है।
फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर आपका इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है।
स्थूल ध्यान मुद्रा सिद्धि की द्वितीय विधि:- हमारे हृदय के मध्य अनाहत नाम का चौथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12 पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः – चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताअप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है। अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है।
साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान शिव विराजमान है, उनकी दो भुजाऐं है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है। उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों कि माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा शक्ति शोभा दे रही है। इस प्रकार शिव का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान सिद्ध होता है।
स्थूल ध्यान मुद्रा सिद्धि की तृतीय विधि:- कंकाकालमालिनी तन्त्र में लिखा है कि- साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैंरे।
वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में शक्ति विराजमान है।
इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्तवर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे।
ज्योतिर्ध्यान मुद्रा सिद्धि की विधि
मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सर्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करे।
एक दूसरे प्रकार का तेजो-ध्यान है कि भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। इसको तेजो-ध्यान या ज्योतिर्ध्यान कहते हैं।
सूक्ष्म ध्यान मुद्रा सिद्धि की विधि
पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र-मार्ग से निकलकर उर्ध्व-भागस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है। इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है।
साधक शाम्भवी मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म-ध्यान कहते हैं। इस दुर्लभ ध्यान-योग द्वारा- आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।शाम्भवी मुद्रा का वर्णन आरम्भ करते हुए प्रथम उसका महत्व प्रकट किया है कि यह मुद्रा परम गोपनीय है।
शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ।
शाम्भवी महामुद्रा (Shambhavi Mahamudra) की विधि
आंखें खुली हों, लेकिन आप देख नहीं सकते। ऐसी स्थिति जब सध जाती है तो उसे शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। ऐसी स्थिति में आप नींद का मजा भी ले सकते हैं। यह बहुत कठिन साधना है। इसके ठीक उल्टा कि जब आंखें बंद हो तब आप देख सकते हैं यह भी बहुत कठिन साधना है, लेकिन यह दोनों ही संभव है। असंभव कुछ भी नहीं। बहुत से ऐसे पशु और पक्षी हैं जो आंखे खोलकर ही सोते हैं।
ध्यान के किसी आसन में बैठिये और पीठ सीधी कर लीजिए। आपके कंधे और हाथ बिलकुल ढीले होने चाहिए। इसके बाद हाथों को घुटनों पर चिन्मयमुद्रा, ज्ञान मुद्रा या फिर योग मुद्रा में रखिये। सामने किसी बिंदु पर दृष्टि एकाग्र कीजिए। इसके बाद उपर देखने का प्रयास कीजिए।
ध्यान रखिए, सिर स्थिर रहे और अपने विचारों को रोकें और ध्यान दीजिए। इसमें पलकों को बिना झपकाएँ देखते रहें, लेकिन ध्यान किसी भी चीज को देखने पर ना रखें ।
यदि आपने त्राटक किया है या आप त्राटक के बारे में जानते हैं तो आप इस मुद्रा को कर सकते हैं। सर्वप्रथम सिद्धासन में बैठकर रीढ़-गर्दन सीधी रखते हुए पलकों को बिना झपकाएं देखते रहें, लेकिन ध्यान किसी भी चीज को देखने पर ना रखें।दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य स्थिर करके एकाग्र मन से परमात्मा का चिंतन करें दिमाग बिल्कुल भीतर कहीं लगा हो।जब इस शाम्भवी योग को किया जाता है तो दोनो आँखे ऊपर मस्तिष्क में चढ़ जाती है और दिव्य प्रकाश के दर्शन भी होने लगते है।
शाम्भवी मुद्रा को शिव मुद्रा या भैरवी मुद्रा भी कहते है। यदि आपने त्राटक किया है या आप त्राटक के बारे में जानते हैं तो आप इस मुद्रा को कर सकते हैं। इसके लिए किसी शांत जगह में सिद्धासन,सुखासन या पद्मासन में बैठे या ऐसा आसन जिस मे घंटों तक शरीर में हलचल न हो या पीड़ा महसूस न हो और अपनी पीठ सीधी रखे अपने कंधे और हाथ को ढीले रख ,हाथ ज्ञान मुद्रा में रखे ।तत् पश्चात् बाह्य तर्क-वितर्कों या विचारों से जितना हो सके उतना मुक्त होकर, रीढ़-गर्दन सीधी रखते हुए,पलकों को बिना झपकाएं ,आँखें दोनों भ्रमर के मध्य प्रदेश में अर्थात् योग की परिभाषा में आज्ञाचक्र में स्थिर एकाग्र करनी चाहिए ।
दिमाग बिल्कुल भीतर कहीं लगा हो।आँखें अर्ध खुली रहे। शाम्भवी मुद्रा ज्यादा कठिन नहीं है इसे करते वक्त आपको अपनी EYEBROWS पर फोकस करना है। जब आप अपनी आँखों से आइब्रोस को देखते है तो आपको कुछ और नहीं दिखाई देता है|इसके करने के लिए अपनी दोनों EYEBALLS को ऊपर की ओर ले जाये| और जहाँ आपके दोनों आईब्रो की शुरुवात होती है वहाँ देखे|जब आप ऐसा कर पाएंगे तो आपको एक कर्व लाइन दिखेंगी जो बीच में जाकर दिखेंगी। इस स्थिति में जितने देर आप अपनी आँखों को रख सकते है रख ले। शुरुवात में इसे करते वक्त कुछ ही देर में आपकी आँखे थक जाएँगी और दुखने लगेगा ऐसा होने पर कुछ देर के लिए रिलैक्स करे, फिर वापिस से अपनी आँखों को सामान्य अवस्था में ले आये।
इसका नियमित अभ्यास करने पर आपको धीरे धीरे इसे करने की आदत पढ़ जाएगी। शाम्भवी मुद्रा करते वक्त अपनी साँसों का आवागमन सामान्य रखे|जब आप ध्यान के तकनीक के साथ आगे बढ़ेंगे आपकी सांस धीमी और अधिक सूक्ष्म हो जायेगी। जिस तरह से बाहरी कल्याण या सुख पाने के लिए खास तरह का विज्ञान और तकनीक होती है, उसी तरह से आंतरिक कल्याण व खुशी पैदा करने के लिए भी विज्ञान और तकनीक का पूरा तंत्र मौजूद है।शाम्भवी मुद्रा आपको ध्यान की गहरी स्थिति में ले जा सकती है।
आप जीवन से इस तरह गुजर सकते हैं कि यह आपको छू भी नहीं सकता, आप जीवन के साथ जैसे चाहें वैसे खेल सकते हैं और फिर भी यह जीवन आपके ऊपर कोई निशान नहीं छोड़ता। यही वह चमत्कार है।
क्या शाम्भवी मुद्रा में समाधिस्थ होना सम्भव है?
शाम्भवी- मुद्रा (Shambhavi Mahamudra) करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है।
शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है।
ऐसा ध्यान करे कि शिवलिंग का रूप आत्मा में समाहित होता प्रतीत हो और साकार परब्रह्म की अनुभूति हो, आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र शिवलिंग-रूप आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है। ध्यानबिन्दू -उपनिषद् के प्रारम्भ में ही कहा है कि- यदि पर्वत के समान अनेक योजन विस्तीर्ण पाप भी हों तो भी वे ध्यान योग से नष्ट हो जाते हैं।
ध्यान देने योग्य तथ्य
शाम्भवी मुद्रा पूरी तरह से तभी सिद्ध हो सकती है जब आपकी आंखें खुली हों, पर वे किसी भी चीज को न देख रही हो। ऐसा समझें की आप किसी धून में जी रहे हों। आपको खयाल होगा कि कभी-कभी आप कहीं भी देख रहें होते हैं, लेकिन आपका ध्यान कहीं ओर रहता है।
अवधि:- इस मुद्रा को शुरुआत में जितनी देर हो सके करें और बाद में धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाते जाएं।इसके मात्र 20 से 25 मिनट के नियमित अभ्यास से आपके अन्दर ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता बढती है| इससे आपका तनाव दूर होता है और आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होती है |
शाम्भवी महामुद्रा के ध्यान मे बरती जाने वाली सावधानियां
यह अभ्यास सरल और सुरक्षित है तथा इसे कोई भी कर सकता है। फिर भी इस आसन को करते समय कुछ सावधानी बरतें। शाम्भवी मुद्रा के लिए जो चीजें बताई गई हैं उसे धीरे-धीरे करें। जल्दबाजी करने की कोशिश न करें।
अगर आप किसी तरह की समस्या से पीड़ित हैं या आपको कोई दर्द हो रहा है तो शाम्भवी मुद्रा को करने की कोशिश न करें। यह ध्यान रखें कि इस अभ्यास को करने वाला व्यक्ति की उम्र 7 साल से ज्यादा हो। अगर आपने चश्मा पहन रखा है उसे निकालकर साइड में रख दें।
Benefits of Shambhavi Mahamudra शाम्भवी महामुद्रा के लाभ
शाम्भवी महामुद्रा का ध्यान करने मात्र से ही मनुष्य को अनेक प्रकार के लाभ मिलते है, आज्ञा चक्र निम्न और उच्च चेतना को जोड़ने वाला केंद्र है। यह मुद्रा आज्ञा चक्र को जाग्रत करने वाली एक शक्तिशाली क्रिया है । यह मुद्रा शारीरिक लाभ प्रदान करने के अलावा आंखों के स्नायुओं को मजबूत बनाता है। मानसिक स्तर पर इस अभ्यास योग से मन की शांति प्राप्त होती है। आंखें खुली रखकर भी व्यक्ति नींद और ध्यान का आनंद ले सकता है। यह योग मुद्रा करने से तनाव और चिंता दूर होती है।
इस अभ्यास के सधने से व्यक्ति भूत और भविष्य का ज्ञाता बन सकता है। शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने पर आपकी मानसिक क्षमता में इजाफा होता है।यह आपके मस्तिष्क में जबरदस्त तालमेल बिठाता है जिसके चलते मानसिक क्षमता बढती है। इससे बुद्धि बढती है तथा सीखने की गति भी, इसलिए छात्र छात्राओं को तो इसे जरुर करना चाहिए। इससे नींद की गुणवत्ता में भी सुधार आता है याने की आप रात को अच्छी नींद ले पाते है। शाम्भवी से होने वाले फायदों पर मेडिकल रिसर्च से पता चला है कि तमाम मानसिक और शारीरिक रोगों से पीडि़त लोग अगर नियमित रूप से शाम्भवी मुद्रा अभ्यास करें तो न केवल उन्हें रोग से राहत मिलती है, बल्कि उनकी दवाएं तक बंद होजाती हैं।
चमत्कारिक शाम्भवी महामुद्रा
प्राण से परे शांभवी महामुद्रा में वह क्षमता है जो आपको उस आयाम को स्पर्श करा सकती है, जो इन सबका आधार है। लेकिन आप इसे सक्रिय तौर पर नहीं कर सकते। आप केवल माहौल को तय कर सकते हैं। हम शांभवी को हमेशा स्त्रीवाचक मानते हैं। उसके फलदायी होने के लिए आपके भीतर श्रद्धा का भाव होना चाहिए। आप सृष्टि के स्रोत के केवल संपर्क में आ सकते हैं, आपको इससे और कुछ नहीं करना।
शांभवी में प्राणायाम का एक तत्व भी मौजूद होता है, जो कई तरह से लाभदायक है। शांभवी क्रिया के बारे में अहम बात यह है कि यह सृष्टि के स्रोत को छूने का एक साधन है, जो प्राण से परे है। यह पहले दिन भी ही हो सकता है या यह भी हो सकता है कि आपको छह माह में भी कोई नतीजा न मिले। पर अगर आप इसे करते रहे, तो एक दिन आप इस आयाम को छू लेंगे। अगर आप इसे छू लेंगे, तो अचानक सब कुछ रूपांतरित हो जाएगा।
योग साधना मे शाम्भवी मुद्रा का विशेष महत्व बताया गया है| इसमें आपकी आँखे खुली तो होती है किन्तु आप देख नहीं सकते है ऐसी स्थिति जब सध जाती है तो उसे शाम्भवी मुद्रा कहा जाता है। यह बहुत कठिन साधना है। इसके ठीक उल्टा कि जब आंखें बंद हो तब आप देख सकते हैं यह भी बहुत कठिन है, लेकिन यह दोनों ही संभव है।
असंभव कुछ भी नहीं। बहुत से ऐसे पशु और पक्षी हैं जो आंखे खोलकर ही सोते हैं। जब इस मुद्रा को किया जाता है तो दोनो आँखे ऊपर मस्तिष्क में चढ़ जाती है और दिव्य प्रकाश के दर्शन भी होने लगते है। योगी का ध्यान दिल में स्थिर होने लगता है। इसकी एक खासियत यह है की इसे करते वक्त आंखें खुली रखकर भी व्यक्ति नींद और ध्यान का आनंद ले सकता है।
इसके सधने से व्यक्ति भूत और भविष्य का ज्ञाता बन सकता है। जिसकी तीसरी आंख खुली हो, वह भविष्य के संकेतों को समझने में सफल होता है। शाम्भवी मुद्रा हमारी तीसरी आंख खोलती है, जिससे हमारी गहन चेतना के द्वार खुलते हैं। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से मस्तिष्क में डेल्टा तरंगें सक्रिय हो जाती हैं, जिससे दिमाग एकदम शांत हो जाता है।मस्तिष्क के बाएं और दाएं हिस्सों के बीच संवाद का तादात्म्य स्थापित होता है, जिससे भावी घटनाओं के संकेत मिलने लगते हैं। शाम्भवी मुद्रा को भगवान शिव की मुद्रा भी कहा जाता है।
जब इस साधना को लम्बे समय तक किया जाता है तो बहुत ज्यादा नींद आने लगती है| इस मुद्रा को करने के बाद साधक घण्टो तक एक आसन पर चेतन अवस्था मे रहकर साधना कर सकते है।मुद्रा शब्द का प्रयोग एवं मुद्राओं के वैज्ञानिक अभ्यासक्रम का स्वीकार भक्ति एवं ज्ञानमार्ग में नहीं किया गया है किंतु योगमार्ग में योगसाधना में निपुण आचार्यों के द्वारा किया गया है । शांभवी मुद्रा का उल्लेख भी इसमें समाविष्ट है । तड़ागी, खेचरी, योनि तथा महामुद्रा की भाँति शांभवी मुद्रा भी एक महत्वपूर्ण मुद्रा है जिसका उल्लेख योगविद्या के प्राचीन ग्रंथो में किया गया है ।शांभवी मुद्रा का अभ्यास करने की तमन्ना वाले साधक को पद्मासन जैसे किसी विशिष्ट आसन में बैठना चाहिए ।
शांभवी मुद्रा मन की विषयगामी बाह्य वृत्ति को प्रतिनिवृत्त करके ध्यान में लगानेवाली मुद्रा है।नजर को दो भ्रमर के मध्य प्रदेश में स्थापित करके शांति से बैठे रहना और ध्यान करना ।इसका वर्णन करने वाले अनुभवसिद्ध आचार्यों ने बताया है कि इस मुद्रा में आँख खुली हो फिर भी मन बाह्य पदार्थों या विषयों में नहीं भटकता ।मन की वृत्ति क्रमशः शांत हो जाती है और अन्त में बिलकुल शांत होने पर आँख खुली होती है फिर भी कुछ नहीं देखती ।मन की परमशांति की अवस्था या समाधि की उपलब्धि, इसके लिए ही वह की जाती है । इसीलिए योग की सुप्रसिद्ध साधना में उसकी महिमा अद्वितीय मानी जाती है ।शांभवी मुद्रा साधक को विचारों, विकारों एवं विषयों के उस पार के प्रशांत प्रदेश में प्रवेशित कराती है
शाम्भवी महामुद्रा हेतु ध्यान दें
इसका विस्तृत वर्णन अमनस्कयोग ,शिवसहिता और हठयोग प्रदीपिका में मिलेगा। यह मुद्रा प्रारम्भ में कुछ मिनिट के लिए शुरू करे फिर धीरे धीरे समय को बढ़ाये, ध्यान रहे यह अभ्यास इतनी न करे की सर दर्द हो , इससे आज्ञाचक्र जागृत होता है और साधक त्रिकालज्ञ बनता है भूत ,वर्तमान ,भविष्य की बाते सहज ही जान सकता है।
शांभवी योग मुद्रा सिध्दासन
इस मुद्रा में कुण्डलिनी अवश्य जागृत होगी व तुम्हें अपने स्वयं दिव्य प्रकाश का अनुभव होगा। सीधे पैर को खूब दबा कर योनि तथा गुदा की सीवन के बीच में ऐड़ी रखे। फिर योनि स्थान के ऊपर दूसरे पैर की ऐड़ी रखे। फिर काया शिर तथा ग्रीवा को सम करके शरीर को तोल दो।
ब्राह्य इन्द्रियो को बन्द करके ठूठ के समान निश्चल हो जाओं स्थिर दृष्टि से अर्धनेत्र खुले निश्चल रहो। यह शांभवी मुद्रा सिध्दासन है। अन्तरमुख मन से हृदय में ”शिव सिध्द शरण” सात बार बोले व सात बार मन ही से सुनो, वृति को हृदय में स्फुरण से एककर ..सोऽहम का चिन्तन करे; और फिर निश्चल संकल्प, विकल्प से रहित स्थित अर्ध नेत्र खुले रहे; इस तरह से शांभवी मुद्रा में बैठे रहो। इस प्रकार के सतत चिन्तन अभ्यास से मुलाधार में ब्रह्म रन्ध्र तक सातों चक्र रूपी कपाट स्वत: ही खुल जाते है ।
जिससे प्रथम अपने आप में परिजातक गहरी सुगन्ध प्रकट होती है। फिर स्वयं का दिव्य प्रकाश पुंज अपने अन्दर प्रकट होकर सम्पूर्ण देह में व्याप्त हो जाता है; और फिर अन्दर-बाहर एक सा दिव्य प्रकाश ही प्रकाश अनुभूत होता है। यह जीव ब्रह्मलोक रूपी शिव शक्ति समायोग नामक मोक्ष है, इसके प्रभाव से जीवन मुक्ति रूप स्वाभाविक अवस्था स्वत: ही प्राप्त होती है।इस मुद्रा को शुरुआत में जितनी देर हो सके करें और बाद में धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाते जाएं।
उच्च कोटि के प्रयोगशील साधक यदि शांभवी मुद्रा का आधार लेकर दोनों भ्रमर के मध्य प्रदेश में दृष्टि को स्थिर-एकाग्र करके ध्यान या जप करेंगे तो इससे उनको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा लेकिन अन्य सर्वसाधारण साधकों की दृष्टि से सोचा जाए तो कह सकते हैं कि उनके लिए जप या ध्यान करते समय शांभवी मुद्रा करना उचित न होगा । उनके लिए तो आँखे बन्द करके जप या ध्यान के अभ्यास का विधिपूर्वक अभ्यास करना उचित होगा । उससे उनका मन आसानी से स्थिर या एकाग्र हो जाएगा सिर्फ मुद्रा का अभ्यास करना चाहे तो उसका अभ्यास कर सकते हैं । ध्यान और शाम्भवी महामुद्रा के प्रभाव का वैज्ञानिक प्रमाण भी मिलता है।
शाम्भवी महामुद्रा (Shambhavi Mahamudra) के वैज्ञानिक दृष्टिकोण
ध्यान शब्द का प्रयोग कई चीजों के लिये किया जाता है। अगर आप किसी एक चीज़ पर एकाग्र हैं, तो लोग कहते हैं कि आप ध्यान कर रहे हैं। यदि आप एक ही विचार लगातार सोच रहे हैं तो भी लोग इसे ध्यान कहते हैं। जब आप सिर्फ एक ध्वनि, एक मंत्र या किसी और चीज़ का लगातार उच्चारण करते हैं, तो उसे भी ध्यान कहा जाता है। अगर आप मानसिक रूप से अपने आसपास हो रही चीज़ों के प्रति या अपनी शारीरिक व्यवस्था में हो रही चीज़ों के प्रति सजग हैं तो उसे भी ध्यान की संज्ञा दी जाती है।
शाम्भवी इनमें से किसी भी प्रकार में नहीं आती। इसीलिये इसे ‘महामुद्रा’ या ‘क्रिया’ कहते हैं।
मुद्रा शब्द का शाब्दिक अर्थ है – बंद करना। आप कुछ बंद कर देते हैं। पहले के किसी भी समय की तुलना में, आजकल के समय में ऊर्जा का खर्च होना सबसे बड़ी समस्या है। इसका कारण यह है कि मानवता के इतिहास के पहले के किसी भी समय की तुलना में, आज के समय में मनुष्य की संवेदनाओं से जुड़ा सिस्टम कहीं ज्यादा उत्तेजित रहता है।
उदाहरण के लिये, अब हम सारी रात तेज़ रोशनी में बैठ सकते हैं। आप की आंखों की व्यवस्था इसके लिये तैयार नहीं की गयी है।वे इस तरह से बनीं हैं कि उन्हें बारह घंटे प्रकाश मिले और बारह घंटे अंधकार या एकदम हल्का प्रकाश। तो अब आपकी आंखों को पागलों की तरह काम करना पड़ता है। पुराने ज़माने में आपको कोई बड़ी आवाज़ तभी सुनाई देती थी जब कोई शेर दहाड़ता था, या हाथी चिंघाड़ता था या ऐसी ही कोई अन्य, उत्तेजित करने वाली आवाज़ की जाती थी, अन्यथा सब जगह शांति रहती थी। आजकल हर समय भयानक शोरगुल रहता है और आप के कान इस अत्यधिक बोझ को सहन करते रहते हैं।
तो इस तरह से अपनी इंद्रियों के द्वारा आप जितना कुछ ग्रहण कर रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं था। जब इन्द्रियाँ इस स्तर पर काम कर रहीं हैं, तो अगर आप बैठ कर ॐ या राम कहते हैं तो ये बस बहुत तेज़ी से, अंतहीन रूप से दोहराना ही हो जायेगा। तो जब तक मनुष्य अपने भीतर एक शक्तिशाली प्रक्रिया न कर रहा हो, वो आज के समय में बिना दिन में सपने देखे आंखें बंद करके बैठ ही नहीं सकता। जब भी आप किसी चीज़ पर ध्यान देते हैं तो आप की ऊर्जा खर्च होती है।
अगर प्रकाश की एक किरण आप की ओर आती है तो आप इसे देख सकें, इसके लिये आप की ऊर्जा खर्च होती है। जब कोई आवाज़ आप की ओर आती है तो उसे सुनने में आप की ऊर्जा लगती है।ये महामुद्रा एक सील की तरह है। जैसे ही आप ताला लगा कर सील कर देते हैं तो आप की उर्जायें बाहर जाने की बजाय अपने आप को एक अलग ही दिशा में घुमा देती हैं। अब बात बन जाती है, जो होना चाहिये वही होता है। शायद ही कोई अन्य क्रिया लोगों को पहले ही दिन इस तरह ऊपर उठा देती है, जैसा शाम्भवी महामुद्रा करती है।
इसका कारण ये है कि यदि आप महामुद्रा सही ढंग से लगाते हैं तो आप की अपनी उर्जायें एक ऐसी दिशा में घूम जाती हैं जिसमें वे अपने आप कभी नहीं घूमतीं। अन्यथा आप की इंद्रियों को लगातार मिलने वाले संदेशों के कारण आप की ऊर्जाओं का खर्च ही होता रहता है। ये वैसा ही है कि जब आप किसी चीज़ को लगातार देखते रहते हैं तो कुछ समय बाद आप थक जाते हैं। सिर्फ आप की आँखें ही नहीं थकतीं, आप भी थक जाते हैं।
शाम्भवी पर बहुत सा वैज्ञानिक शोधकार्य हो रहा है। वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि जो लोग शाम्भवी क्रिया करते हैं उनकी कार्टिसोल ( तनाव को कम करने वाले हार्मोन्स) को सक्रिय करने की क्षमता काफी ज्यादा होती है। बीडीएनएफ, ज्ञान तंतुओं को सुदृढ़ करने वाला तत्व जो मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न किया जाता है, वह भी बढ़ता है।कोर्टिसोल को जागृत करने की क्रिया जागरूकता के अलग-अलग स्तरों को निश्चित करती है।
आत्मज्ञान प्राप्ति को भी जागरूक होना कहते हैं।अगर आप कम से कम 90 दिन से शाम्भवी क्रिया कर रहे हैं, तो सुबह उठने के 30 मिनट बाद आप की कोर्टिसोल को जागृत करने की क्षमता किसी सामान्य व्यक्ति की तुलना में कई गुना ज्यादा होगी। नियमित रूप से शाम्भवी क्रिया करने से आप के शरीर में सूजन को कम करने वाले तत्व भी बहुत बढ़ते हैं। और आप का डीएनए बताता है कि 90 दिन तक क्रिया करने के बाद, कोशिकाओं के स्तर पर आप 6.4 वर्ष छोटे हो जाते हैं। जिम्मेदार वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है और इन सब बातों से भी अधिक सुंदर बात ये है कि आप की शांति कई गुना बढ़ जाती है जब कि आप का मस्तिष्क एकदम सक्रिय रहता है।
शाम्भवी महामुद्रा का सबसे अलग आयाम है। अमेरिका में जो भी अध्ययन किये गये हैं, वे अधिकतर बौद्ध ध्यान प्रक्रियाओं के बारे में हैं, योग के अन्य आयामों के बारे में नहीं। बौद्ध ध्यान प्रक्रियाओं का एक महत्वपूर्ण भाग ये है कि उनसे लोग शांतिपूर्ण, आनंददायक हो जाते हैं पर साथ ही उनके मस्तिष्क की सक्रियता भी कम हो जाती है।
शाम्भवी के बारे में जो महत्वपूर्ण बात है, वो ये है कि लोग शांतिपूर्ण, आनंददायक तो हो ही जाते हैं पर साथ ही उनके मस्तिष्क की सक्रियता भी बढ़ जाती है आध्यात्मिकता के नाम पर लोग सामान्य रूप से, बस बैठ कर राम-राम या कोई अन्य मंत्र जपते रहते हैं। आप अगर सिर्फ ‘लललल ‘ को भी बार-बार जपते रहें तो भी आप शांतिपूर्ण हो जायेंगे। यह बस एक लोरी की तरह है। अगर कोई दूसरा आप के लिये नहीं गा रहा है तो आप स्वयं अपने लिये गा सकते हैं। ये आप के लिये सहायक होगा।बहुत से लोग अपने आपको बार-बार कुछ कहते रहते हैं। फिर ये चाहे कोई तथाकथित पवित्र ध्वनि हो या कोई भी ऊटपटांग शब्द हो, अगर आप इसे बार-बार दोहराते रहेंगे तो आप में कुछ सुस्ती आयेगी ही। इस सुस्ती को अक्सर लोग गलती से शांति समझ लेते हैं।
अभी आप के साथ केवल एक ही समस्या है, और वह है आप के मस्तिष्क की सक्रियता। अगर आप में से दिमाग़ी गतिविधि को निकाल दिया जाये तो आप एकदम शांत और अद्भुत हो जायेंगे, लेकिन साथ ही साथ किसी भी संभावना से रहित भी हो जायेंगे।परन्तु आपका मस्तिष्क कार्यरत होना ही चाहिये।मूल रूप से मनुष्य की समस्या बस ये है कि वह अपनी संभावनाओं को समस्याओं के रूप में देखता है। अगर आप संभावना को हटा दें, यदि आप का आधा मस्तिष्क ले लिया जाये तो समस्या भी समाप्त हो जाएगी। तो संभावनाओं को बढ़ाना और फिर भी कोई समस्या न होने देना, यही शाम्भवी महामुद्रा की विशेषता है।
शाम्भवी महामुद्रा से प्राण, सन्तुलन, व स्वास्थ्य का महत्व
आप जीवन में, आपका मन, आपका शरीर और आपका पूरा तंत्र कैसे काम करेगा, यह आपके प्राण या जीवन ऊर्जा से तय होता है। प्राण एक बुद्धिमान ऊर्जा है। चुंकि प्राण पर हर व्यक्ति की कार्मिक याद्दाश्त छपी होती है, इसलिए यह हर इंसान के लिए अलग तरह से काम करता है। इसके उल्टा, बिजली में कोई बुद्धि नहीं होती, इसलिए यह बल्ब जला सकती है, कैमरा चला सकती है और लाखों काम कर सकती है, यह इसकी समझदारी की वजह से नहीं होता, बल्कि यह उस यंत्र की वजह से होता है, जिसे यह चला रही है। शरीर में प्राण के पाँच रूप हैं, जिन्हें पंच वायु कहते हैं। इनमें हैं – प्राण वायु, समान वायु, उदान वायु, अपान वायु, व्यान वायु।
ये मानव-तंत्र के विभिन्न पहलू हैं।यौगिक अभ्यासों की मदद से, आप पंच वायु की डोर अपने हाथ में ले सकते हैं। अगर आपने इन पर महारत हासिल कर ली तो आप अधिकतर रोगों से मुक्त हो जाएंगे – खासकर मानसिक रोगों से अपना बचाव कर सकेंगे।आज संसार को इसकी सबसे अधिक जरूरत है। अगर हमने अभी ध्यान न दिया तो आने वाले पचास सालों के अंदर हमारे पास बहुत अधिक लोग ऐसे होंगे जो मानसिक असंतुलन का शिकार होंगे। यह सब हमारी आधुनिक जीवनशैली की देन है। हम बहुत ही गलत तरीके से जीवन के कई आयामों को संभाल रहे हैं।
अगर आप अपने प्राणों की जिम्मदारी लेते हैं तो बाहरी हालात चाहे जो भी हों, आप मनोवैज्ञानिक तौर पर संतुलित रहेंगे। अभी भी, बहुत सारे लोग मनोवैज्ञानिक स्तर पर असंतुलन के शिकार हैं, हालांकि उनका अभी मेडिकल डायग्नोसिस नहीं हुआ है। हर रोज, लोगों का मन उन्हें निराश होने, तनाव में जाने या रोने के लिए विवश कर देता है। यह उनके लिए दुख पैदा कर रहा है।मान लीजिए आपका हाथ बेकाबू हो कर आपको नोचने लगे या चोट पहुँचाए – तो यह बिबीमारी है।
इस समय लोगों का मन उनके साथ यही कर रहा है। यह भी एक रोग है पर समाज ने इसे रोग नहीं मानता। मनुष्य के रोजमर्रा से जुडे़ हर दुख का मूल मन में ही है। रोग हमारे भीतर आ चुका है, और दिन-ब-दिन बढ़ रहा है क्योंकि हमारे आसपास सामाजिक ढांचे, तकनीक और कई दूसरी चीजें ऐसी ही हैं। जो अपने प्राणों पर महारत पा लेता है, वह सौ फीसदी अपने मानसिक संतुलन को भी बनाए रख सकता है। इस तरह आप खुद को कई तरह के शारीरिक रोगों से भी बचा सकते हैं। हालांकि आजकल के माहौल में होने वाले संक्रमण और जहरीले रसायनों से होने वाले खतरे तब भी बने रहेंगे।
वायु, जल और भोजन के जरिए शरीर में जाने वाले तत्वों पर हम पूरी तरह से काबू नहीं पा सकते, भले ही हम कितने भी सावधान क्यों न रहें। लेकिन इनका असर हर व्यक्ति के लिए अलग होता है। बाहरी कारणों की वजह से शारीरिक सेहत की सौ प्रतिशत गारंटी नहीं दी जा सकती, लेकिन अगर प्राणों को अपने वश में कर लें तो मानसिक सेहत की सौ प्रतिशत गारंटी है। अगर आप मानसिक तौर पर स्वस्थ होंगे तो थोड़े-बहुत शारीरिक मसलों से आपको कोई हानि नहीं होगी। अक्सर किसी शारीरिक परेशानी की स्थिति में, उस शारीरिक कष्ट से ज्यादा परेशानी, उसकी वजह से मन में उपजी प्रतिक्रिया से होती है। प्राण आपके साथ कैसे काम करते हैं, वे बाकी ब्रह्माण्ड के साथ कैसे काम करते हैं, वे किसी नवजात के शरीर में कैसे प्रवेश करते हैं, मरने वाले के शरीर को कैसे छोड़ते हैं – इन सब बातों को देखकर पता चलता है कि उनके पास अपनी एक समझ है।
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